कविता। ग़ज़ल। अपनी बात।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

जिम्मेदार कौन ?

नेता ने जनता से बोला ये रोना-धोना छोड़

बात पुरानी बोझ बन गई उसको ढोना छोड़

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र हैं कारण कहा हाथ को जोड़

तू मंहगाई का कोई ठीकरा मेरे सिर मत फोड॥ १॥

अनाज सड़े गोदाम से बाहर किसको सुध है भाई

नाम,पता गोदाम का लेकर ट्रक में शराब है आई

अब सरकारी गोदामों में अवैध माल संभलेगा

राशन की दूकान पर लिखा "चीनी नहीं है आई"॥ २॥

धरती छोटी बड़ी आबादी,प्रजनन की आजादी

कंक्रीट के जंगल देखो और खेतों की बर्बादी

दूध,अनाज,फल जहर मिले हैं मरने की आजादी

दोष नहीं यह सरकारी है व्यवसायिक आजादी ॥ ३॥

फैशन के इस दौर में नकली अब सामान मिलेगा

अजी पैसे भी तब देने होंगे जब सामान मिलेगा

बाजारवाद की महिमा को तब तुम भी समझोगे

तेरे ही घर की बाजारों में अमेरिका,जापान मिलेगा ॥ ४॥

आतंकवाद है एक खिलौना मिलकर सब खेलेंगे

दद्दा ने ही हुक्म दिया है इसे अब की हम झेलेंगे

विकासवाद की इस थ्योरी को भारत जब पढ़ लेगा

जब दद्दा का आदेश मिलेगा तब और लोग खेलेंगे॥ ५॥

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

मेहनतकशों के नाम

जो औरों का बोझ सिर पर लिए चलते रह गए ।

बनकर चिराग रात -दिन जो जलते रह गए॥

मयस्सर भी उन्हें होती नहीं सुखी रोटियां।
जो औरों के लिए जीते और मरते रह गए॥

देखा नहीं किसी ने किसी शाम उनके घर।

कुछ नौनिहाल भूखे हाथ मलते रह गए॥

जो औरो की खुशी के लिए जी-जान लड़ाते।

खुद अपनी जिंदगी में आह भरते रह गए॥

हाथो में जिनके छालों का कोई नहीं निशान।

अपनी तिजोरियों को वही भरते रह गए॥

जिंदगी

हैरान तो हो तुम भी किस तरह रह गए ।
तेरे सितम को जालिम किस तरह सह गए।।
जब भी वजूद तेरा तूफ़ान बन के आया।
हम रेत की दीवार बने और ढह गए ॥
आखों में नींद कब थी जो ख्वाब देखते।
ख्वाब के लिए भी तरस करके रह गए॥
आसान नहीं होता जिए जाना जिंदगी।
होठो से कह न पाए तो आखो से बह गए॥
ऊँगली पकड़ कर मौत ने पूछा भी कई बार।
तुझ बेवफा के साथ मगर जिन्दा रह गए॥


रविवार, 11 जुलाई 2010

अनामिका जी ! आप से कहना है ....

अनामिका जी !
धन्यवाद् ! उस प्यार के लिए जो अपने मेरी रचना को पढ़ कर उस पर टिप्पणी किया. सस्नेह मेरा अभिवादन ! उस आग्रह के लिए जिसने मुझे चर्चा मंच पर आमंत्रित किया. क्षमा,मेरी असमर्थता के लिए की मैं 9 जुलाई को आप सभी से संपर्क नहीं कर पाई.
अनामिका जी !आप के ब्लॉग पर ही लिख रही हूँ तो साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी की मैंने आप की सभी कवितायेँ पढ़ी.साहित्य में रूचि रखना ही साहित्य प्रेम है.हम भारतीय हैं,हमारी मातृभाषा हिन्दी है,हमारा अपना विपुल साहित्य है उससे प्रेम करना यानि अपने समाज और संस्कृति,सभ्यता से प्रेम करना है,किसी भी राष्ट्र के श्रेष्ठ नागरिक का यही प्रथम कर्तव्य और दायित्व है,जिसे आप पूर्ण श्रद्धा और आत्मविश्वास के साथ निभा रही हैं,यह देखकर मुझे आत्मसंतुष्टि का अनुभव हुआ.कुछ वर्ष पहले यह एक चिंतन का विषय था की नई पीढ़ी जो अंग्रेजियत का शिकार हो रही है उससे हिन्दी भाषा के भविष्य और अस्तित्व पर खतरा आ सकता है लेकिन हिन्दी भाषा की पत्रिकाओं की प्रकाशन दर में निरंतर हो रही वृद्धि ने उस दुश्चिंता के ग्राफ को काफी नीचे कर दिया है.इन्टरनेट पर हिन्दी की साइटों,ब्लोगों ने तो हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय पाठकों का एक इतना बड़ा समूह दे दिया है कि कोई चाहे भी तो हिन्दी को पीछे नहीं धकेल सकता.यूँ समझिये कि जब आप जैसी साहित्यिक प्रतिभा संपन्न और प्रतिनिधित्व करने के उत्साह से पूर्ण महिलाएं हिन्दी भाषा में ही ब्लॉग के साथ इस मुहिम में शामिल हो रही हैं तो कहना ही चाहिए "राष्ट्रभाषा जिंदाबाद".
मैं व्यवसाय से अध्यापन के क्षेत्र से जुडी हुई हूँ.व्यक्तित्व से सोशल वर्कर हूँ,रूचि से साहित्य-प्रेमी हूँ ,मेरी रचनाएँ इन सभी तत्वों से तैयार शोभा गुप्ता की सवेंदानाओं का उदगार हैं . आजकल मैं एक संस्था को संचालित कर रही हूँ जिसका मुख्य उद्देश्य ऐसे बच्चों को शिक्षा और चिकित्सकीय उपचार मुहैया करवाना है जो इसे प्राप्त कर पाने में आंशिक या पूर्ण रूप से असफल रहे हैं या रह जाते हैं.हमारे पास ऐसे- ऐसे बच्चे आते हैं जिनकी उम्र पंद्रह से बीस वर्ष की हो गई है जिन्होंने कभी स्कूल के अन्दर पाँव तक नहीं रखा.आने वाली १८ जुलाई को एक ऐसी ही लड़की की हम शादी करने जा रहे हैं जिसकी उम्र बीस वर्ष है जो घरो में झाड़ू-बरन करके अपना और अपनी दादी का गुजारा कर रही है,जिसके पास माँ-बाप ,भाई - बहन कोई भी नहीं है जो उसे किसी भी प्रकार से आर्थिक,सामाजिक सहयोग दे सके.पढ़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुई उसने कहा"बस मैं लिखना - पढ़ना सीखूंगी वह भी रात में जब काम कर के वापिस आ जाऊंगी,बोलो मंजूर है तो पढ़ाओ नहीं तो बताओ की यह काम कर दो इतना पैसा मिलेगा". मैं अपने कुछ सहयोगी मित्रों के साथ यह काम पिछले पंद्रह वर्षों से कर रही हूँ.मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की उन्होंने मेरी एक रचना हिन्दी कुंज में छपी हुई देखा है जिसे मुझे देखना चाहिए.शाम को घर देर से वापिस आई,काम से खाली होते-होते १.३० हो गया था और शनिवार की सुबह घर से सात बजे निकल कर उस लड़की की शादी के लिए इन्तेजाम के सिलसिले में कुछ लोगो से मिलना था सो, सो जाना ही सही लगा फिर तो मैं चर्चा मंच पर नहीं आ सकी.आज जब चर्चा मंच पर पहुंची तो समझ नहीं आया कहाँ लिखे,या पोस्ट करे फिर आप से सीधे आप के दर पर मिलना ज्यादा सही लगा.क्षमा पहले मांग चुकी हूँ,ध्यान रहे.
अनामिका जी ! समय ज्यादा हो रहा है,मेरे वो बार-बार पूछ रहे हैं आज पूरे साल का काम इकठ्ठा कर रही हैं क्या.जल्दी ही मिलूंगी ई-मेल के जरिये भी हम बात कर सकते हैं और ब्लॉग के जरिये से भी. शुभ-रात्रि!
शोभा गुप्ता
July 11, 2010
shobhaguptablog@gmail.com
http://meriduniameinmeribaat.blogspot.com/

मंगलवार, 29 जून 2010

मेरी दुनिया में आपका स्वागत है

बंधुओं !
आप अगर हिन्दी साहित्य और उसकी विधाओं से प्रेम करते हैं तो आपका 'मेरी दुनिया' में स्वागत है। यह ब्लॉग यूँ तो व्यक्तिगत रूचि के कारण बनाया गया है लेकिन समाज में रहने वाला प्राणी सामाजिक कहलाता है और प्राणी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अपनी रूचि-अरुचियों के साथ समाज से जुड़ा रहता है इसलिए किसी के लिए स्वयं उसका कुछ भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता। ब्लॉग पर आने का मतलब ही है की आप अपनी भावनाओं, रुचियों के साथ उस संमाज से जुड़ना चाहते हैं जिसकी रुचियाँ और भावनाए आप से मिलती-जुलती हैं।
मित्रों! एक निवेदन कि आप में से जो भी बन्धु समर्थक अथवा मित्र के रूप में 'मेरी दुनिया' से जुड़ रहे हैं वे कृपा करके अपने बारे में एक संक्षिप्त जानकारी मुझे मेरे ई -मेल पर अवश्य भेजें। आपको संभव है थोड़ी असुविधा जरूर होगी लेकिन नए मित्रों के बारे में जानने और उनसे वैचारिक सन्दर्भों,संपर्कों को बनाने में मुझे काफी सहूलियत होगी।

रविवार, 27 जून 2010

मेरी दुनिया -4

हूक सी दिल में उठाते क्यूँ हो।
दर्द-ऐ-दिल मेरा बढ़ाते क्यूँ हो॥

जिसकी कोई वज़ह कभी हो ही नहीं सकती है।
ऐसी उम्मीद भला मुझमें जागते क्यूँ हो॥

रहनुमा बन के जो सिर्फ गुनाह करते हैं।
उनकी खातिर हमें शूली पर चढ़ाते क्यूँ हो॥

हम तो इन्सान हैं इंसानियत के कायल हैं।
मज़हबी आग में हमको जलाते क्यूँ हो॥

जिन्हें दो जून की रोटी नहीं नसीब होती।
छीनकर मरने का हक़ उनको सताते क्यूँ हो॥

शुक्रवार, 25 जून 2010

मेरी दुनिया -3

मेरे नाम उसने है ख़त लिखा,मैं लिखूं क्या उसको जवाब में।

वो दीवाना मेरा है हो गया, न सोचा था जिसको ख़्वाब में॥

मासूम चहरे की असलियत, मैं देख कर घबरा गई।

देखा करीब से जब उसे, काँटे थे कितने गुल़ाब में॥

कहता वो खुद को पाक है,नापाक जिसके ख्याल हैं।

होता है जब भी वो रू-ब-रू,मिलता हमें है नक़ाब में॥

इक हसीं पल की याद में,जाने कितने ग़म मैं भुला चुकी।

जिन्हें ग़म ने अपना बना लिया,गए डूब सारे शराब में॥