कविता। ग़ज़ल। अपनी बात।

रविवार, 27 जून 2010

मेरी दुनिया -4

हूक सी दिल में उठाते क्यूँ हो।
दर्द-ऐ-दिल मेरा बढ़ाते क्यूँ हो॥

जिसकी कोई वज़ह कभी हो ही नहीं सकती है।
ऐसी उम्मीद भला मुझमें जागते क्यूँ हो॥

रहनुमा बन के जो सिर्फ गुनाह करते हैं।
उनकी खातिर हमें शूली पर चढ़ाते क्यूँ हो॥

हम तो इन्सान हैं इंसानियत के कायल हैं।
मज़हबी आग में हमको जलाते क्यूँ हो॥

जिन्हें दो जून की रोटी नहीं नसीब होती।
छीनकर मरने का हक़ उनको सताते क्यूँ हो॥

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