कविता। ग़ज़ल। अपनी बात।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

मेहनतकशों के नाम

जो औरों का बोझ सिर पर लिए चलते रह गए ।

बनकर चिराग रात -दिन जो जलते रह गए॥

मयस्सर भी उन्हें होती नहीं सुखी रोटियां।
जो औरों के लिए जीते और मरते रह गए॥

देखा नहीं किसी ने किसी शाम उनके घर।

कुछ नौनिहाल भूखे हाथ मलते रह गए॥

जो औरो की खुशी के लिए जी-जान लड़ाते।

खुद अपनी जिंदगी में आह भरते रह गए॥

हाथो में जिनके छालों का कोई नहीं निशान।

अपनी तिजोरियों को वही भरते रह गए॥

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